Friday, December 31, 2010

jaan nisaar akhtar rubaaiiyaa

1. अब्र में छुप गया है आधा चाँद
चाँदनी छ्न रही है शाखों से
जैसे खिड़की का एक पट खोले
झाँकता हो कोई सलाखों से

2. चंद लम्हों को तेरे आने से
तपिश-ए-दिल ने क्या सुकूँ पाया
धूप में गर्म कोहसारों पर
अब्र का जैसे दौड़ता साया

3. इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
अपने जज़बात की हसीं तहरीर
किस मोहब्बत से तक रही है मुझे
दूर रक्खी हुई तेरी तस्वीर

4. ये मुजस्स्म सिमटती मेरी रूह
और बाक़ी है कुछ नफ़स का खेल
उफ़ मेरे गिर्द ये तेरी बांहें
टूटती शाख पर लिपटती बेल

5. ये किसका ढलक गया है आंचल
तारों की निगाह झुक गई है
ये किस की मचल गई हैं ज़ुल्फ़ें
जाती हुई रात रुक गई है

6. जीवन की ये छाई हुई अंधयारी रात
क्या जानिए किस मोड़ पे छूटा तेरा साथ
फिरता हूँ डगर- डगर अकेला लेकिन
शाने पे मेरे आज तलक है तेरा हाथ

jaan nisaar akhtar

रुखों के चांद, लबों के गुलाब मांगे है
बदन की प्यास, बदन की शराब मांगे है


मैं कितने लम्हे न जाने कहाँ गँवा आया
तेरी निगाह तो सारा हिसाब मांगे है


मैं किस से पूछने जाऊं कि आज हर कोई
मेरे सवाल का मुझसे जवाब मांगे है


दिल-ए-तबाह का यह हौसला भी क्या कम है
हर एक दर्द से जीने की ताब मांगे है


बजा कि वज़ा-ए-हया भी है एक चीज़ मगर
निशात-ए-दिल तुझे बे-हिजाब मांगे है

jaan nisaar akhtar

तमाम उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा
ये कम नहीं हमें जीने का हौसला तो रहा



गुज़र ही आये किसी तरह तेरे दीवाने
क़दम क़ादम पे कोई सख़्त मरहला तो रहा



चलो न इश्क़ ही जीता न अक़्ल हार सकी
तमाम वक़्त मज़े का मुक़ाबला तो रहा



मैं तेरी ज़ात में गुम हो सका न तू मुझ में
बहुत क़रीब थे हम फिर भी फ़ासला तो रहा



ये और बात कि हर छेड़ लाउबाली थी
तेरी नज़र का दिलों से मुआमला तो रहा



बहुत हसीं सही वज़ए-एहतियात तेरी
मेरी हवस को तेरे प्यार से गिला तो रहा

jaan nisaar akhtar

तमाम उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा
ये कम नहीं हमें जीने का हौसला तो रहा



गुज़र ही आये किसी तरह तेरे दीवाने
क़दम क़ादम पे कोई सख़्त मरहला तो रहा



चलो न इश्क़ ही जीता न अक़्ल हार सकी
तमाम वक़्त मज़े का मुक़ाबला तो रहा



मैं तेरी ज़ात में गुम हो सका न तू मुझ में
बहुत क़रीब थे हम फिर भी फ़ासला तो रहा



ये और बात कि हर छेड़ लाउबाली थी
तेरी नज़र का दिलों से मुआमला तो रहा



बहुत हसीं सही वज़ए-एहतियात तेरी
मेरी हवस को तेरे प्यार से गिला तो रहा

jaan nisaar akhtar

ज़माना आज नहीं डगमगा के चलने का
सम्भल भी जा कि अभी वक़्त है सम्भलने का



बहार आये चली जाये फिर चली आये
मगर ये दर्द का मौसम नहीं बदलने का



ये ठीक है कि सितारों पे घूम आये हैं
मगर किसे है सलिक़ा ज़मीं पे चलने का



फिरे हैं रातों को आवारा हम तो देखा है
गली गली में समाँ चाँद के निकलने का



तमाम नशा-ए-हस्ती तमाम कैफ़-ए-वजूद
वो इक लम्हा तेरे जिस्म के पिघलने का

jaan nisaar akhtar

इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं
झटक के फेंक दो पलकों पे ख़्वाब जितने हैं



वतन से इश्क़, ग़रीबी से बैर, अम्न से प्यार
सभी ने ओढ़ रखे हैं नक़ाब जितने हैं



समझ सके तो समझ ज़िन्दगी की उलझन को
सवाल उतने नहीं है, जवाब जितने हैं

Tuesday, December 28, 2010

sheen qaaf nizaam

पहले जमीन बांटी फिर घर भी बट गया
इन्सान अपने आप में कितना सिमट गया

अब क्या हुआ कि खुद को मैं पहचानता नही
मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छट गया

हम मुंतजिर थे शाम से सूरज के दोस्तों
लेकिन वो आया सर पे तो कद अपना घट गया

गांवों को छोड़ कर तो चले आये शहर में
जायें किधर कि शहर से भी जी उचट गया

किससे पनाह मांगे, कहां जायें, क्या करें
फिर आफताब रात का घूंघट उलट गया

सैलाबे-नूर में जो रहा मुझ से दूर-दूर
वो शख्स फिर अंधेरे में मुझसे लिपट गया

sheen qaaf nizaam

पुरखो से मिली है जो वो दौलत भी ले ना जाय
जालिम हवा-ए-शहर है इज्जत भी ले न जाय

वहशत तो संगो-खिश्त की तर्तीब ले गई
अब फिक्र ये है दश्त की वुअसत भी ले न जाय

पीछे पड़ा है सब के जो परछाईयो का पाप
हम से अदावतों की वो आदत भी ले न जाय

आंगन उजड़ गया है तो गम उसका ता ब के
मुहतात रह कि अब के वो ये छत भी ले न जाय

बरबादियां समेटने का उसको शौक है
लेकिन वो उन के नाम पर बरकत भी ले न जाय

आदिल है उसके अद्ल पर हमको यकीन है
लेकिन वो जुल्म सहने की हिम्मत भी ले न जाय

उन सुहबतों का जिक्र तो जिक्रे-फजूल है
डर है कि लुत्फे-शुक्रो-शिकायत भी ले न जाय

खुद से भी बढ़ के उस पे भरोसा न कीजिये
वो आईना है देखिये सूरत भी ले न जाये

sheen qaaf nizaam

खुद हूं तमाशा खुद ही तमाशाईयों में हूं
जब से सुना है मैं तिरे शैदाईयों में हूं

गैराईयों में हूं कभी गहराईयों में हूं
रोजे-अजल से आंखो की अंगनाइयों में हूं

इक-इक नफस के साथ जला जिस के वास्ते
उस का ख्याल है कि मैं हरजाइयों में हूं

ऐवाने-ख्वाब छोड़ के निकला हूं जब से मैं
सांसो की गूंजती हुई शहनाईयों में हूं

अन्धे कुएं से अन्धे कुएं में गिरा दिया
सोचा नही कि मैं भी तिरे भाईयों में हूं

फूटे है अंग-अंग से तेरे मिरा ही रंग
मैं ही तो तेरी टूटती अंगडाइयों में हूं

कहता है वो कि तुझ से अलग मैं कहाँ ‘निजाम’
तन्हाइयों में था तिरी रूसवाइयों में हूं

sheen qaaf nazim

वो कहाँ चश्मे-तर में रहते हैं
ख़्वाब ख़ुशबू के घर में रहते हैं

शहर का हाल जा के उनसे पूछ
हम तो अक्सर सफ़र में रहते हैं

मौसमों के मकान सूने हैं
लोग दीवारो-दर में रहते हैं

अक्स हैं उनके आस्मानों पर
चाँद तारे तो घर में रहते हैं

हमने देखा है दोस्तों को ‘निज़ाम’
दुश्मनों के असर में रहते हैं

Monday, December 27, 2010

yagana changezi

ज़माना खु़दा को ख़ुदा जानता है।
यही जानता है तो क्या जानता है॥

वो क्यों सर खपाए तेरी जुस्तजू में।
जो अंजामे-फ़िक्रेरसा जानता है॥

ख़ुदा ऐसे बंदों से क्यों फिर न जाए।
जो बैठा हुआ माँगना जानता है॥

वो क्यों फूल तोड़े वो क्यों फूल सूँघे?
जो दिल का दुखाना बुरा जानता है॥

ghzal by Yagana changezi

आप क्या जानें मुझपै क्या गुज़री।

सुबहदम देखकर गुलों का निखार॥

दूर से देख लो हसीनों को।

न बनाना कभी गले का हार॥


अपने ही साये से भड़कते हो।

ऐसी वहशत पै क्यों न आए प्यार॥


तू भी जी और मुझे भी जीने दे।

जैसे आबाद गुल से पहलू-ए-ख़ार॥


बेनियाज़ी भली कि बेअदबी।

लड़खडा़ती ज़बाँ से शिकवये-यार॥


बन्दगी का सबूत दूँ क्योंकर।

इससे बहतर है कीजिये इन्कार॥


ऐसे दो दिल भी कम मिले होंगे।

न कशाकश हुई न जीत न हार॥

josh malihabaadi

ख़ामोशी का समाँ है और मैं हूँ
दयार-ए-ख़ुफ़्तगाँ[1] है और मैं हूँ

कभी ख़ुद को भी इंसाँ काश समझे
ये सई-ए-रायगाँ[2] है और मैं हूँ

कहूँ किस से कि इस जमहूरियत में
हुजूम-ए-ख़सरवाँ[3] है और मैं हूँ

पड़ा हूँ इस तरफ़ धूनी रमाये
अताब-ए-रहरवाँ है और मैं हूँ

कहाँ है हम-ज़बाँ अल्लाह जाने
फ़क़त मेरी ज़बाँ है और मैं हूँ

ख़ामोशी है ज़मीं से आस्माँ तक
किसी की दास्ताँ है और मैं हूँ

क़यामत है ख़ुद अपने आशियाँ में
तलाश-ए-आशियाँ है और मैं हूँ

जहाँ एक जुर्म है याद-ए-बहाराँ
वो लाफ़ानी-ख़िज़ाँ[4] है और मैं हूँ

तरसती हैं ख़रीददारों की आँखें
जवाहिर की दुकाँ है और मैं हूँ

नहीं आती अब आवाज़-ए-जरस[5] भी
ग़ुबार-ए-कारवाँ[6] है और मैं हूँ

म'अल-ए-बंदगी[7] ऐ "जोश" तौबा
ख़ुदा-ए-मेहरबाँ है और मैं हूँ

शब्दार्थ:

↑ सोये हुए लोगों का जहाँ
↑ बेकार सी कोशिश
↑ राजाओं की भीड़
↑ स्थायी पतझड़
↑ घंटियों की आवाज़
↑ कारवां के बाद उड़ती हुई धूल
↑ किसी की पूजा का फल

josh malihabaadi

किसने वादा किया है आने का
हुस्न देखो ग़रीबख़ाने का

रूह को आईना दिखाते हैं
दर-ओ-दीवार मुस्कुराते हैं

आज घर, घर बना है पहली बार
दिल में है ख़ुश सलीक़गी बेदार

जमा समाँ है ऐश-ओ-इश्रत का
ख़ौफ़ दिल में फ़रेब-ए-क़िस्मत का

सोज़-ए-क़ल्ब-ए-कलीम आँखों में
अश्क-ए-उम्मीद-ओ-बीम आँखों में

चश्म-बर-राह-ए-शौक़ के मारे
चाँद के इंतज़ार में तारे

ghazal by my dada ji Janaab AHMAR Kashipuri

Ese lamhe bhi ulfat me aaye
dard utha or hum muskuraye
ho hi jata hai soorat se zaahir
lakh dil me koi apne gham chupaye
ban gaye tajrube zindagi ke
jul(gham)mohabbat me jitne uthaye
badh rahe he meri jaanib
kese keese khtarnaak saaye
kiya bharosa jahan me kisi ka
aap hi waada karke na aaye

Sunday, December 26, 2010

Abdus salam kousar

Jogi ji ruko,ek baat suno,ghar chod ke van me jana kiya
har saans me uska zikr he jab,phit basti kiya veerana kiya
sarmad ne pada adha kalma,,meera kiyun jogan ban bethi
kiyon goutam ne ghar chod diya,,ye raaz kisi ne jana kiya
duniya ki khatir dukh jhele,,ghar se bhi gaye suli pe chade
wo log to sachche the lekin ..jag ne unko pehchana kiya
jab kashti doob bhi sakti hai sahil ke kareeb ate ate
phir tez hawa se darna kiya phir tufaan se ghabrana kiya
jo phool khila murjhayega ...our chandni kab payinda hai..
ye husn ki doulat do din ki ,,is par itna itrana kiya
kiya eid dewaali ki khushiya..kiya holi xmas besakhi
muflis ki jeb to khali hai..tyohaar ka ana jana kiya
mana tum sachche rehbar ho .phir desh me kiyon badhaali hai //
kousar is raaz se waqif he samjhe the use dewaana kiya

Saturday, December 25, 2010

shaida baghonvi

Bahut mushkil he urdu ka akhbaar chaapna.
banta nahi he koi kharidaar, chaapna.
he soodmand hindi ka akhbaar chaapna.
do-do waraq pe paiso ka akhbaar chaapna.
gurbat se kitne log yaha jaa'nbahaq huye.
sube me he gareeb ki sarkar chaapna.
har masla hai apni jagah khud bana hua.
lagta he roz janta ka darbaar, chaapna
jo intikhaab jeet ke pahuche he qasr tak.
in saare rehnumao ke kirdaar, chaapna.

qasr=mahal..

Friday, December 24, 2010

Ghazal by janaab Iqbal adeeb kashipuri

zindagi wo chaal chal kar reh gayi
har khushi gham me badal kar reh gayi
dekhkar tere mariz-e-gham ki mout
sari duniya hath mal kar reh gayi
apke gham ki sa-adat ke tufail
zindagi meri sambhal kar reh gayi
zindgaani dekhte hi dekhte meri
umr ke aatish kade me akhir
har mataye zeest jal kar reh gayi
barf ki soorat pighal kar reh gayi
ranzish-e-pehem se chehro ki khushi
dhoop ki manind dhal kar reh gayi
kya ho iqbal apno ki nazar
daftan hum se badal kar reh gayi-iqbal adeeb

alam khursheed

तोड़ के इसको वर्षो रोना होता है
दिल शीशे का एक खिलौना होता है

महफ़िल में सब हँसते-गाते रहते है
तन्हाई में रोना-धोना होता है

कोई जहाँ से रोज़ पुकारा करता है
हर दिल में इक ऐसा कोना होता है

बेमतलब कि चालाकी हम करते हैं
हो जाता है जो भी होना होता है

दुनिया हासिल करने वालों से पूछो
इस चक्कर में क्या-क्या खोना होता है

सुनता हूँ उनको भी नींद नहीं आती
जिनके घर में चांदी-सोना होता है

खुद ही अपनी शाखें काट रहे हैं हम
क्या बस्ती में जादू-टोना होता है

काँटे-वाँटे चुभते रहते हैं आलम
लेकिन हम को फूल पिरोना होता है

Ahmad hydrabadi

दुनिया के हर इक ज़र्रे से घबराता हूँ।
ग़म सामने आता है, जिधर जाता हूँ।
रहते हुए इस जहाँ में मिल्लत गुज़री,
फिर भी अपने को अजन्बी पाता हूँ॥

दिलशाद अगर नहीं तो नाशाद सही,
लब पर नग़मा नहीं तो फ़रियाद सही।
हमसे दामन छुडा़ के जाने वाले,
जा- जा गर तू नहीं तेरी याद सही॥

गुलज़ार भी सहरा नज़र आता है मुझे,
अपना भी पराया नज़र आता है मुझे।
दरिया-ए-वजूद में है तूफ़ाने-अदम,
हर क़तरे में ख़तरा नज़र आता है मुझे॥

Friday, December 17, 2010

krishna bihari noor luckhnavi

अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है
रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है

नशे में डूबे कोई, कोई जिए, कोई मरे
तीर क्या क्या तेरी आँखों की कमाँ छोड़ती है

बंद आँखों को नज़र आती है जाग उठती हैं
रौशनी एसी हर आवाज़-ए-अज़ाँ छोड़ती है

खुद भी खो जाती है, मिट जाती है, मर जाती है
जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बाँ छोड़ती है

आत्मा नाम ही रखती है न मज़हब कोई
वो तो मरती भी नहीं सिर्फ़ मकाँ छोड़ती है

एक दिन सब को चुकाना है अनासिर का हिसाब
ज़िन्दगी छोड़ भी दे मौत कहाँ छोड़ती है

मरने वालों को भी मिलते नहीं मरने वाले
मौत ले जी के खुदा जाने कहाँ छोड़ती है

ज़ब्त-ए-ग़म खेल नहीं है अभी कैसे समझाऊँ
देखना मेरी चिता कितना धुआँ छोड़ती है

krishna bihari noor luckhnavi

इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत

इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत



रात हो दिन हो ग़फ़लत हो कि बेदारी हो

उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत



तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी

कभी दरिया नहीं काफ़ी, कभी क़तरा है बहुत



मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह

मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत



कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है

घर की दहलीज़ पे ऐ 'नूर' उजाला है बहुत

unkii yaad by shakeel badayuni

रूह को तड़पा रही है उन की याद
दर्द बन कर छा रही है उन की याद



इश्क़ से घबरा रही है उन की याद्
रुकते रुकते आ रही है उन की याद



वो हँसे वो ज़ेर-ए-लब कुछ कह उठे
ख़्वाब से दिखला रही है उन की याद



मैं तो ख़ुद्दारी का क़ाइल हूँ मगर
क्या करूँ फिर आ रही है उन की याद



अब ख़्याल-ए-तर्क-ए-रब्त ज़ब्त ही से है
ख़ुद ब ख़ुद शर्मा रही है उन की याद

shakeel badayuni

कैसे कह दूँ कि मुलाकात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है



आप लिल्लाह न देखा करें आईना कभी
दिल का आ जाना बड़ी बात नहीं होती है



छुप के रोता हूँ तेरी याद में दुनिया भर से
कब मेरी आँख से बरसात नहीं होती है



हाल-ए-दिल पूछने वाले तेरी दुनिया में कभी
दिन तो होता है मगर रात नहीं होती है



जब भी मिलते हैं तो कहते हैं कैसे हो "शकील"
इस से आगे तो कोई बात नहीं होती है

Ghazal by janaab Javed akhtar

हमारे शौक़ की ये इन्तहा[1] थी
क़दम रक्खा कि मंज़िल रास्ता थी

बिछड़ के डार से बन-बन फिरा वो
हिरन को अपनी कस्तूरी सज़ा थी

कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी

मैं बचपन में खिलौने तोड़ता था
मिरे अंजाम की वो इब्तदा[2] थी

मुहब्बत मर गई मुझको भी ग़म है
मिरे अच्छे दिनों की आशना[3] थी

जिसे छू लूँ मैं वो हो जाये सोना
तुझे देखा तो जाना बद्दुआ थी

मरीज़े-ख़्वाब को तो अब शफ़ा[4] है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी

शब्दार्थ:

↑ हद
↑ शुरुआत
↑ परिचित
↑ रोग से मुक्ति

Ghazal by janaab Javed akhtar

ये तसल्ली है कि हैं नाशाद[1] सब
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब

सब की ख़ातिर हैं यहाँ सब अजनबी
और कहने को हैं घर आबाद सब

भूलके सब रंजिशें सब एक हैं
मैं बताऊँ सबको होगा याद सब

सब को दावा-ए-वफ़ा सबको यक़ीं
इस अदकारी में हैं उस्ताद सब

शहर के हाकिम का ये फ़रमान है
क़ैद में कहलायेंगे आज़ाद सब

चार लफ़्ज़ों में कहो जो भी कहो
उसको कब फ़ुरसत सुने फ़रियाद सब

तल्ख़ियाँ[2] कैसे न हों अशआर में
हम पे जो गुज़री हमें है याद सब

शब्दार्थ:

↑ नाखुश
↑ कड़वाहटें

ghazal by my dada ji Janaab AHMAR Kashipuri

Mere alfaaz ki sachchaiya achchi nahi lagti
mere dushman ko meri khoobiya achchi nahi lagti
jawaano ki nazar,baahar ka manzer dekhna chahe
buzurgo ko gharo me khidkiyaa achchi nahi lagti
jo apne bhaiyon se sir utha kar baat karti hai
na jane kiyun mujhe wo ladkiyaa achchi nahi lagti
suna hai dukh bahut deta hai tumko bhi akelapan
mujhe bhi aaj kal tanhaaiyaan achchi nahi lagti

Tuesday, December 14, 2010

Basheer badr

किस ने मुझको सदा दी बता कौन है
ऐ हवा तेरे घर में छुपा कौन है

बारिशों में किसी पेड़ को देखना
शाल ओढ़े हुए भीगता कौन है

मैं यहाँ धूप में तप रहा हूँ मगर
वो पसीने में डूबा हुआ कौन है

आसमानों को हमने बताया नहीं
डूबती शाम में डूबता कौन है

ख़ुश्बुओं में नहाई हुई शाख़ पर
फूल-सा मुस्कुराता हुआ कौन है

दिल को पत्थर हुए इक ज़माना हुआ
इस मकाँ में मगर बोलता कौन है

तुम भी मजबूर हो हम भी मजबूर हैं
बेवफ़ा कौन है बावफ़ा कौन है

Monday, December 13, 2010

Ahsaan Danish

कभी मुझ को साथ लेकर, कभी मेरे साथ चल के
वो बदल गये अचानक, मेरी ज़िन्दगी बदल के

हुए जिस पे मेहरबाँ, तुम कोई ख़ुशनसीब होगा
मेरी हसरतें तो निकलीं, मेरे आँसूओं में ढल के

तेरी ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ के, क़ुर्बाँ दिल-ए-ज़ार ढूँढता है
वही चम्पई उजाले, वही सुरमई धुंधलके

कोई फूल बन गया है, कोई चाँद कोई तारा
जो चिराग़ बुझ गये हैं, तेरी अंजुमन में जल के

मेरे दोस्तो ख़ुदारा, मेरे साथ तुम भी ढूँढो
वो यहीं कहीं छुपे हैं, मेरे ग़म का रुख़ बदल के

तेरी बेझिझक हँसी से, न किसी का दिल हो मैला
ये नगर है आईनों का, यहाँ साँस ले सम्भल के

Naqsh lyalpuri

कोई झंकार है, नग़मा है, सदा है क्या है ?
तू किरन है, के कली है, के सबा है, क्या है ?

तेरी आँख़ों में कई रंग झलकते देख़े
सादगी है, के झिझक है, के हया है, क्या है ?

रुह की प्यास बुझा दी है तेरी क़ुरबत ने
तू कोई झील है, झरना है, घटा है, क्या है ?

नाम होटों पे तेरा आए तो राहत-सी मिले
तू तसल्ली है, दिलासा है, दुआ है, क्या है ?

होश में लाके मेरे होश उड़ाने वाले
ये तेरा नाज़ है, शोख़ी है, अदा है, क्या है ?

दिल ख़तावार, नज़र पारसा, तस्वीरे अना
वो बशर है, के फ़रिश्ता है, के ख़ुदा है, क्या है ?

बन गई नक़्श जो सुर्ख़ी तेरे अफ़साने की
वो शफ़क है, के धनक है, के हिना है, क्या है ?

Naqsh lyalpuri

जब दर्द मुहब्बत का मेरे पास नहीं था
मैं कौन हूँ, क्या हूँ, मुझे एहसास नहीं था

टूटा मेरा हर ख़्वाब, हुआ जबसे जुदा वो
इतना तो कभी दिल मेरा बेआस नहीं था

आया जो मेरे पास मेरे होंट भिगोने
वो रेत का दरिया था, मेरी प्यास नहीं था

बैठा हूँ मैं तनहाई को सीने से लगा के
इस हाल में जीना तो मुझे रास नहीं था

कब जान सका दर्द मेरा देखने वाला
चेहरा मेरे हालात का अक्कास नहीं था

क्यों ज़हर बना उसका तबस्सुम मेरे ह़क में
ऐ ‘नक़्श’ वो इक दोस्त था अलमास नहीं था

Naqsh lyalpuri

मैं दुनिया की हक़ीकत जानता हूँ
किसे मिलती है शोहरत जानता हूँ

मेरी पहचान है शेरो सुख़न से
मैं अपनी कद्रो-क़ीमत जानता हूँ

तेरी यादें हैं , शब बेदारियाँ हैं
है आँखों को शिकायत जानता हूं

मैं रुसवा हो गया हूँ शहर-भर में
मगर ! किसकी बदौलत जानता हूँ

ग़ज़ल फ़ूलों-सी, दिल सेहराओं जैसा
मैं अहले फ़न की हालत जानता हूँ

तड़प कर और तड़पाएगी मुझको
शबे-ग़म तेरी फ़ितरत जानता हूँ

सहर होने को है ऐसा लगे है
मैं सूरज की सियासत जानता हूँ

दिया है ‘नक़्श’ जो ग़म ज़िंदगी ने
उसे मै अपनी दौलत जानता हूँ

gyaan prakash vivek

अजीब किस्म का विश्वास उस बशर में है
है उसके पाँव में बेड़ी मगर सफ़र में है

सपेरे दूर से तकरीर सुनने आए हैं
विषैले साँपों का जलसा मेरे शहर में है

ज़रूर नाचेंगे मज़दूर चार दिन यूँ ही
कि चार रोज़ का राशन सभी के घर में है

पहाड़ बर्फ़ का बेख़ौफ़ खड़ा है फिर भी
उसे पता है कि वो धूप की नज़र में है

मुझे बुलाए तो किस तरह घर बुलाए वो
किराएदार की तरह जो अपने घर में है.

Sunday, December 12, 2010

Allama Iqbal

मुखपृष्ठ » रचनाकारों की सूची » रचनाकार: इक़बाल » आता है याद मुझ को गुज़रा हुआ ज़माना



आता है याद मुझको गुज़रा हुआ ज़माना
वो बाग़ की बहारें वो सब क चह-चहाना



आज़ादियाँ कहाँ वो अब अपने घोँसले की
अपनी ख़ुशी से आना अपनी ख़ुशी से जाना



लगती हो चोट दिल पर, आता है याद जिस दम
शबनम के आँसूओं पर कलियों का मुस्कुराना



वो प्यारी प्यारी सूरत, वो कामिनी सी मूरत
आबाद जिस के दम से था मेरा आशियाना

Ahmad Faraz

अब वो मंजर, ना वो चेहरे ही नजर आते हैं
मुझको मालूम ना था ख्वाब भी मर जाते हैं

जाने किस हाल में हम हैं कि हमें देख के सब
एक पल के लिये रुकते हैं गुजर जाते हैं

साकिया तूने तो मयखाने का ये हाल किया
रिन्द अब मोहतसिबे-शहर के गुण गाते हैं

ताना-ए-नशा ना दो सबको कि कुछ सोख्त-जाँ
शिद्दते-तिश्नालबी से भी बहक जाते हैं

जैसे तजदीदे-तअल्लुक की भी रुत हो कोई
ज़ख्म भरते हैं तो गम-ख्वार भी आ जाते हैं

एहतियात अहले-मोहब्बत कि इसी शहर में लोग
गुल-बदस्त आते हैं और पा-ब-रसन जाते हैं

मोहतसिबे-शहर - धर्माधिकारी, सोख्त-जाँ - दिल जले
शिद्दते-तिश्नालबी - प्यास की अधिकता, तजदीदे-तअल्लुक - रिश्तों का नवीनीकरण
गम-ख्वार - गम देने वाले

Ahmad Faraz

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे

हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे

तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे

लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ
कत्ल होने का हौसला है मुझे

दिल धडकता नहीं सुलगता है
वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे

कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे

Ahmad Faraz

जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना
मुझे गुमाँ भी ना हो और तुम बदल जाना

ये शोलगी हो बदन की तो क्या किया जाये
सो लाजमी है तेरे पैरहन का जल जाना

तुम्हीं करो कोई दरमाँ, ये वक्त आ पहुँचा
कि अब तो चारागरों का भी हाथ मल जाना

अभी अभी जो जुदाई की शाम आई थी
हमें अजीब लगा ज़िन्दगी का ढल जाना

सजी सजाई हुई मौत ज़िन्दगी तो नहीं
मुअर्रिखों ने मकाबिर को भी महल जाना

ये क्या कि तू भी इसी साअते-जवाल में है
कि जिस तरह है सभी सूरजों को ढल जाना

हर इक इश्क के बाद और उसके इश्क के बाद
फ़राज़ इतना आसाँ भी ना था संभल जाना

शोलगी - अग्नि ज्वाला, मुअर्रिख - इतिहास कार
मकाबिर - कब्र का बहुवचन, साअते-जवाल - ढलान का क्षण

Ahmad Faraz

अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी
इक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी

मैं भी शहरे-वफ़ा में नौवारिद
वो भी रुक रुक के चल रही है अभी

मैं भी ऐसा कहाँ का ज़ूद शनास
वो भी लगता है सोचती है कभी

दिल की वारफतगी है अपनी जगह
फिर भी कुछ एहतियात सी है अभी

गरचे पहला सा इज्तिनाब नहीं
फिर भी कम कम सुपुर्दगी है अभी

कैसा मौसम है कुछ नहीं खुलता
बूंदा-बांदी भी धूप भी है अभी

खुद-कलामी में कब ये नशा था
जिस तरह रु-ब-रू कोई है अभी

कुरबतें लाख खूबसूरत हों
दूरियों में भी दिलकशी है अभी

फ़सले-गुल में बहार पहला गुलाब
किस की ज़ुल्फ़ों में टांकती है अभी

सुबह नारंज के शिगूफ़ों की
किसको सौगात भेजती है अभी

मैं तो समझा था भर चुके सब ज़ख्म
दाग शायद कोई कोई है अभी

मुद्दतें हो गईं फ़राज़ मगर
वो जो दीवानगी थी, वही है अभी

नौवारिद - नया आने वाला, ज़ूद-शनास - जल्दी पहचानने वाला
वारफतगी - खोया खोयापन, इज्तिनाब - घृणा, अलगाव
सुपुर्दगी - सौंपना, खुदकलामी - खुद से बातचीत, शिगूफ़े- फूल, कलियां


चश्मे-पुर-खूं - खून से भरी हुई आँख
आबे-जमजम - मक्के का पवित्र पानी
अबस - बेकार, सानी - बराबर, दूसरा
कामत - लम्बे शरीर वाला (यहाँ कयामत/ज़ुल्म ढाने वाले से मतलब है)

Ahmad Faraz

न कोई ख़्वाब न ताबीर ऐ मेरे मालिक
मुझे बता मेरी तक़सीर ऐ मेरे मालिक

न वक़्त है मेरे बस में न दिल पे क़ाबू है
है कौन किसका इनागीर1 ऐ मेरे मालिक

उदासियों का है मौसम तमाम बस्ती पर
बस एक मैं नहीं दिलगीर2 ऐ मेरे मालिक

सभी असीर हैं फिर भी अगरचे देखने हैं
है कोई तौक़3 न ज़ंजीर ऐ मेरे मालिक

सो बार बार उजड़ने से ये हुआ है कि अब
रही न हसरत-ए-तामीर ऐ मेरे मालिक

मुझे बता तो सही मेहरो-माह किसके हैं
ज़मीं तो है मेरी जागीर ऐ मेरे मालिक

‘फ़राज़’ तुझसे है ख़ुश और न तू ‘फ़राज़’ से है
सो बात हो गई गंभीर ऐ मेरे मालिक

1. लगाम थामने वाला 2. ग़मगीन 3. गले में डाली जाने वाली कड़ी

Saturday, December 11, 2010

Ahmad Faraz

अल्मिया[1]

किस तमन्ना [2]से ये चाहा था कि इक रोज़ तुझे
साथ अपने लिए उस शहर को जाऊँगा जिसे
मुझको छोड़े हुए,भूले हुए इक उम्र[3]हुई

हाय वो शहर कि जो मेरा वतन है फिर भी
उसकी मानूस[4]फ़ज़ाओं [5]से रहा बेग़ाना[6]
मेरा दिल मेरे ख़्यालों[7]की तरह दीवाना[8]


आज हालात का ये तंज़े-जिगरसोज़ [9]तो देख
तू मिरे शह्र के इक हुजल-ए-ज़र्रीं[10] में मकीं[11]
और मैं परदेस में जाँदाद-ए-यक-नाने-जवीं[12]



शब्दार्थ:

↑ त्रासदी
↑ कामना,दिल की गहराइयों से
↑ लंबा समय
↑ परिचित
↑ हवाओं (वातावरण)
↑ अंजान
↑ विचारों
↑ पागल
↑ सीने को छलनी कर देने वाला उलाहना
↑ सोने (स्वर्ण) की सेज
↑ निवासी
↑ जौ की एक रोटी को तरसता

Ahmad Faraz

अब के रुत बदली तो ख़ुशबू का सफ़र देखेगा कौन
ज़ख़्म फूलों की तरह महकेंगे पर देखेगा कौन

देखना सब रक़्स-ए-बिस्मल में मगन हो जाएँगे
जिस तरफ़ से तीर आयेगा उधर देखेगा कौन

वो हवस हो या वफ़ा हो बात महरूमी की है
लोग तो फल-फूल देखेंगे शजर देखेगा कौन

हम चिराग़-ए-शब ही जब ठहरे तो फिर क्या सोचना
रात थी किस का मुक़द्दर और सहर देखेगा कौन

आ फ़सील-ए-शहर से देखें ग़नीम-ए-शहर को
शहर जलता हो तो तुझ को बाम पर देखेगा कौन

ghazal ki mehfil bhi shayari ki haqdaar he

Tumhara zikr cheda hai ghazal ki mehfil me
haseen dour chala hai ghazal ki mehfil me
har ek shaks teri dhun me gungunata hai
bahut hi rang jama hai ghazal ki mehfil me
nigahe mast ki baaten shabab ka charcha
gham-e-jahaan mita hai ghazal ki mehfil me
kisi ke husn ka jaadu hai 'pal' gghazalo me
ye raaz aaj khula hai ghazal ki mehfil me

Friday, December 10, 2010

Kisi apne Humsafar ki yaad ..........

tujhse milne ko kabhi yaar zaroor aaunga
aunga aunga ek baar zaroor aaunga

yaar ghamkhaar koi tujhsa na paya mene
zindagi me tujhe dost banaya mene
kabhi samjha hi nahi tujhko paraya mene
nasamajhna ke tujhe dil se bhulaya mene

ae mere dost teri chasm-e-muravvat ki kasam
tujhko bhoola nahi me apni mohabbat ki kasam
shabe furkat ki kasam roz-e-musibat ki kasam
teri ulfat ki kasam. teri inayat ki kasam

tu jahan par bhi rahe khush rahe abaad rahe
zindagi bhar gham-o-alaam se azaad rahe
tu salamat rahe masroor rahe shaad rahe
parsa tujhko na bhoolega kabhi yaad rahe

tujhse milne ko kabhi yaar zaroor aaunga
aunga aunga ek baar zaroor aaunga

har mousam tumhari yaad.dil kabhi shaad kabhi nashaad

Mousam ayenge jayenge,
hum tumko bhool na payenge.

jaado ki bahar jab ayegi
dhoop aangan me lehrayegi
gul dopeheri muskayegi
shaam ake chiraag jalayegi
jab raat badi ho jayegi
or din chote ho jayenege

hum tumko bhool na payenge

jab garmi ke din ayenge
tapti doupehere layenge
sunnate shour machaenege
galiyon me dhool udaenege
patte peele ho jayenge
jab phool sabhi murjahenege

hum tumko bhool na payenge

jab barkha ki rut ayegi
haryaali sath me layegi
jab kali badli chayegi
koyal malhare gayenegi
ek yaad hame tadpayegi
do naina neer bahaenge
hum tumko bhool na payenegee

Ghazal by janaab Javed akhtar

sach ye hai bekar hame gham hota hai.
jo chaha tha duniya main kam hota hai.
dhalta suraj faila jungle rasta gum.
hamse poocho kesa aalam hota hai.
zakhm to humne in aankho se dekhe hai.
logo se sunte hai marhum hota hai.
gairo ko ka fursat hai gham dene kki.
jab hota hai koi humdum hota hai.
zehen ki shaakho par ashaar aa jate hai.
jab teri yaadon ka mousam hota hai.

Thursday, December 9, 2010

Shikwe shikayat

Ishq ka raaz agar na khul jata
is qadar tu na hamse sharmata
aake tab bethta hai wo humpaas
aap me jab hame nahi pata
zindagi ne wafaa na ki warna
main tamasha wafa ka dikhlata
sab ye baaten he chah ki varna
is qadar tu na hum pe jhunjhlata

""ye wo shay he jo bahut zaroori hai
zindagi gham ke bina adhuri hai""(mera khyaal)

Mukhtalif andaz-e-mohabbat

khoob nibhegi hum dono me mere jesa tu bhi hai
thoda jhoota main bhi tehra thoda jhoota tu bhi hai
jung ana ki haar hi jana behtar he ab ladne se
toota toota main bhi bahut hu bikhra bikhra tu bhi hai
ek muddat se faasla qayam sirf hamare beech hi kiyon
sab se milta main rehta hu sabse milta tu bhi hai

Meri pasand

Zindagi Sirf Mohabbat Nahi Kuch Aur Bhi Hai
Zulf-o-Rukhsaar ki Jannat Nahi Kuch Aur Bhi Hai


Bhookh Aur Pyaas ki Maari Hui Is Duniya Mein
Ishq Hi Ek Haqeeqat Nahin Kuch Aur Bhi Hai

Ghazal by Saba balrampuri

Chirag-e-mohabbat jalane se pehle
dua kijiye dil lagane se pehle
meri mout ne hi meri laaj rakhli
kalam ho gaya sir jhukane se pehle
labo pe tabassum ke ankho me aaansu
ke hum ro diya muskurane se pehle
baraste rahi mustakil meri ankhe
bahut yaad aaye tum aane se pehle...........

Kuch mohabbat ki baatein -- Saba balrampuri

kuch roz se ye rehm-o-karam hone laga hai
woh mere liye raato ko ab rone laga hai
deewana koi kiya hua chahat me hamari
hum par bhi mohabbat ka asar hone laga hai
badnam ho na jaye kahi meri mohabbat
ek khwaab meri ankho ab sone laga hai


tumhari mohabbat me hum mar mitenge
magar tumko hogi khabar dhere dhere

Ye ghazal -ek haqeeqat

Is naye zamane ke aadmi adhure hai
surate to milti hai seerate nahe milti
Apne bal par ladhti hy apni jang har peedhi
sirf naam se buzurgo ke azmate nahe milti
kya khushi sametega zindage ke daman se
aadmi ko ab gham se fursate nahe milti

ek khoobsurat ghazal

Aapki yaad aati rahi raat bhar
chandni dil dukhati rahi raat bhar
koi khushbu badalti rahi pairhan
koi tasveer gaati rahi raat bhar
jo na aya use koi zanjeer-e-dar
har sada par bulati rahi raat bhar
ek ummeed se dil behelta raha
ek tamanna satati rahi raat bhar

Wednesday, December 8, 2010

Ghazal by my dady ji janab Iqbaal adeeb kashipuri

mariz-e-unse wafa ka dum jo tod deta he
rahe hayaat pe ek naqsh chod deta he
use hazaaro duyaaen naseeb hoti he
jo ek toote huye dil ko jod deta he
kuch is tarha se zamane ne dil ko tod diya
ke jese koi khilone ko tod deta he
use hum takalluf kahe ya ehle junoon
jo apna rabt zamane se tod deta he
kisi ko dekh ke mushkil me ye jahan'iqbal'
use usi ke muqaddar pe chod deta he

Ghazal by my dady ji janab Iqbaal adeeb kashipuri

Aman ke naam pe tafreeq badane wale.
khud hi mit jayenge duniya ko mitana wale.
mene halaat se samjhouta kiya he varna.
kitne samaan the is dil ko lubhane wale.
hum ko moujo bahao kinara baksha.
doob jaye na kahi tair ke aane wale.
log nakhush hai mujhse to hairat kiya hai.
mujhme adaab nahi aaye zamane wale.
dil milane ke liye koi raazi na hua.
yun kitne hi mile hath milane wale..

tafreeq=fights ,adaab=style

Mera khyaal -ek koshish

sheher me har kisi ka uncha khandaan tha,
main sach kehta tha main veeraan tha,
kasa utha te hi ban gaya bikhari,
isse pehle to main bhi insaan tha,
bechta rehta wahi apne usoolo ko,
jo shaks kabhi sahib-e-imaan tha,
sochta tha!muflisi me dega sath koi,
haye 'shariq' tu bhi kitna nadaan tha......

Saturday, December 4, 2010

ghazal by Janaab Ubaid azam azmi

Jo dard-o-gham pe the kabhi,wo ikhtiyaar bujh gaye.
na jane aaj kitne dil sar-e-bahaar bujh gaye
tumhare baad zindagi ke marhale ajeeb hai,
jo ek baar jal uthe to lakh baar bujh gaye.
jadidiyat ki andhiyaan thi kitni tez humnafas.
gul-o-subu ka zikr kya salib-o-daar bujh gaye
mere nigah-e-dil ko ab sukoon mile to kiya mile
wo iztiraab dhal gaya wo intezaar bujh gaye
hawa wo abke hai chali ''ubaid azam azmi"
gulo ki baat darkinaar khar-khar bujh gaye.

marhale=issues,jadidiyat=new approach ,humnafas=companion ,iztiraab=irritation

ghazal by Janaab Tasneem farooqui

wo ameer-e-sheher bana raha,bus usi ki sikkagiri rahi.
wo ana jo mera naseeb thi,wo ana dhari ki dhari rahi.
wo dua ke hath uthe rahe,wo chubhan ki fasl hari rahi.
tere gham se aankhe sazi rahi,teri yaad dil me bhari rahi.
tujhe mangna tujhe dhoondna,tujhe chahna tujhe sochna,
teri khushbuo ke shikar me,shob-o-roz darbadri rahi,
meri ungliyo ki taraash ne use patharo ka mahal diya,
wo to fan ka sheher basa gaya,mere hath behunari rahi,
meri shayari meri ratjage,mujhe zindagi to na de sake,
magar ye baat zaroor hai,meri baat sabse khari rahi.
kisi lafz me kisi saaz me,kahi fan ki rooh na dhoondiye
koi deedawar to raha nahi jo rahi peshawari rahi
mera dil nahi sanam ashna ,meri hasrato ka mazar hai,
ye wo ek masjid-e-khaas hai,jo namaziyo'n se bhari rahi.  
           ana= ego.

Friday, December 3, 2010

Ghazal by my dada ji janaab Ahmar kashipuri

Ruswayi jo apne hi sar-e-aaam karenge.
agniyaar to phir or bhi badnaam karenge
yeh ishq to kambakht hame raas na aya.
socha he ke ab or koi kaam karenge   
hum khud to dil-o-jaan se guzar jayenge lekin.
dastaar buzurgo ki na nilaam karenege
jo har wakt andhese anjaam karenge.
shayad hi kabhi koi bada kaam karenege

Ghazal by my dada ji janaab Ahmar kashipuri

Sard be rabt khyaalaat bulate hai tumhe
mere badle huye halaat bulate hai tumhe
aaj bhi unka tarannum hai hawao me rawa''n
dour-e-mazi ke woh naghmaat bulate he tumhe 
subha ho jati hai ek tum ho ke ate hi nahi
chasme tar deed ko har raat bulate hai tumhe
tumne rakkhi thi kabhi jin pe tasalsul ki asaas
phir woh awara khyaalat bulate hai tumhe
aa bhi tumhe masoom mohabbat ki kasam
khoon me rote huye lamhaat bulate he tumhe
tum pe kuch bus to nahi hai mera 'ahmar' lekin
kiya karu kalb ke jazbaat bulate hai tumhe

Thursday, December 2, 2010

A ghazal by me shariq siddiqui

Bahut udaas hai ye zindagi bina tere.
khushi bhi ab nahi lagti hai kushi bina tere.
na pooch kese jiyega bichad ke wo tujhse.
jo ek pal na raha ho kabhi bina tere .
jo ho sake to mujhko tu hi ake batlade.
kategi kese meri zindagi bina tere.
har ek shaks tere sheher me he begana.
karu to kisse karu dosti bina tere
ye baat wo hai jise sirf main hi janta hu
kiya mere dil pe hai guzarti rahi bina tere.
raat ke qissay to hum sab hi jante he .
din me bhi ab nahi hai roshni bina tere

ghazal of parveen shakir


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Ghazal by my dady ji janab Iqbaal adeeb kashipuri

Iqbal Adeeb Kashipuri

हैरत नहीं जो आपके आँसू निकल गये'
अक्सर गमों की आँच से पतथर पिघल गये''
एक शम्‍मा तू है तेरी हवस ही नहीं मिटी'
परवाने बेशुमार तेरी लौ में जल गये''
राहे वफा में वह भी मेरे साथ थे मगर'
एक मोड़ एसा आया के रस्ते बदल गये''
जज़्बा तेरी तलाश का इतना अजीब था'
हम मनजिलों की हद से भी आगे निकल गये''
इक़बाल तेरी याद ने जब से पनाह दी'
तन्हाइयो की केद से बाहर निकल गये''

Ghazal by my dada ji janaab Ahmar kashipuri

Ahmar Kashipuri

शहर से दूर जो टूटी हुई तामीरें हैं
अपनी रुदाद सुनाती हुई तसवीरें हैं
मेरे अशआर को अशआर समझने वालो
यह मेरे खून से लिख्खी हुई तहरीरें हैं
जाने कब तेज़ हवा किस को उड़ा लेजाये
हम सभी फर्श पे बिखरी हुई तस्वीरें हैं
ज़हन आज़ाद है हर क़ैद से अब भी मेरा
लाख कहने को मेरे पाँव में ज़न्जीरें हैं
ज़िन्दगी हम को वहां लाई है अहमर के जहाँ
जुर्म ही जुर्म है ताज़ीरें ही ताज़ीरें हैं                      tazeere = saza,,punishment

Ghazal by my dada ji janaab Ahmar kashipuri

Use dard bhi tasalli use mouj bhi kinara.
jise justju tumhari jise aasraa tumhara

badi kashmakash se guzre shab-e-gham ke talkh lamhe.
kabhi mout ne sada di kabhi aaapne pukara

rahe-e-ishq se guzarna mere bus ki baat kab thi.
teri aarzu ne lekin mujhe de diya sahara
 woh kahan talak na dekhe tere jalve haye rangee''n.
tera husn de raha he use dawate nazara 
 main guzar chuka hu junun ki sabhi mazilo se AHMAR.
mujhe ab nahi khurd ki koi baat bhi gawara

Dua by my dady ji Iqbal adeeb kashipuri

DUA by Iqbal abeeb Kashipuri

Ae Khuda mujhko tu is qaabil bana.
doosro ke kaaam main aauu''n sada.

mujhme jitni ho buraayi chod du.
naik jo rasta he main us par chalu.

rah-e-haq kitni bhi mushkil kiyon na ho.
main hamesha deen par qayam rahu

Ae Khuda mujhko tu is qaabil bana.
doosro ke kaaam main aauu''n sada.

deep nafrat ke bujhane ke liye.
pyaar ki shamme jalane ke liye.

sirf apne nahi ho faaizyaab.
main jiyun sare zamane ka liye.

Ae Khuda mujhko tu is qaabil bana.
doosro ke kaaam main aauu''n sada.


posted by :- shariq adeeb siddiqui