तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है
तेरे साथ तेरी याद आई, क्या तू सचमुच आई है
शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का
मुझ को देखते ही जब उन की अँगड़ाई शरमाई है
उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रफ़ाक़ात का एहसास
जब उस के मलबूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है
हुस्न से अर्ज़ ए शौक़ न करना हुस्न को ज़ाक पहुँचाना है
हम ने अर्ज़ ए शौक़ न कर के हुस्न को ज़ाक पहुँचाई है
हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में
सोज़ ए रक़बत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है
हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे
पागल कुछ तो सोच यह तू ने कैसी शक्ल बनाई है
इश्क़ ए पैचान की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है
हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम
इश्क़ का पैशा हुस्न परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है
आज बहुत दिन बाद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
ज्यों ही दरवाज़ा खोला है उस की खुश्बू आई है
एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है
Saturday, February 26, 2011
john elia pakistan - munfarid shayar
उसके पहलू से लग के चलते हैं
हम कहाँ टालने से टलते हैं
मैं उसी तरह तो बहलता हूँ यारों
और जिस तरह बहलते हैं
वोह है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं
क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं
है उसे दूर का सफ़र दरपेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं
है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं
हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं
तुम बनो रंग, तुम बनो ख़ुशबू
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं
हम कहाँ टालने से टलते हैं
मैं उसी तरह तो बहलता हूँ यारों
और जिस तरह बहलते हैं
वोह है जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं
क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं
है उसे दूर का सफ़र दरपेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं
है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं
हो रहा हूँ मैं किस तरह बर्बाद
देखने वाले हाथ मलते हैं
तुम बनो रंग, तुम बनो ख़ुशबू
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं
Wednesday, February 9, 2011
Ahmar kashipuri ki umda ghazal
Har chand kuch nahi hai magar kuch na kuch to he
ye inqlaab e shaam o seher kuch na kuch to he
tu husn dilnawaaz ka hamil sahi magar
mera bhi itekhab e nazar kuch na kuch to he
he dosto se mere kashida talluqaat
iski bhi dushmano ko khabar kuch na kuch to he
danishwaraan e sheher me ata he jiska naam
wo bhi junun ka zer e asar kuch na kuch to he
hum laakh be-niyaaz e mohabbat sahi magar
ye izteraab e qalb o nazar kuch na kuch to hai
chalti he thodi door har ek raahrou ke sath
ahmar ye gard e raah-guzar kuch na kuch to hai
ye inqlaab e shaam o seher kuch na kuch to he
tu husn dilnawaaz ka hamil sahi magar
mera bhi itekhab e nazar kuch na kuch to he
he dosto se mere kashida talluqaat
iski bhi dushmano ko khabar kuch na kuch to he
danishwaraan e sheher me ata he jiska naam
wo bhi junun ka zer e asar kuch na kuch to he
hum laakh be-niyaaz e mohabbat sahi magar
ye izteraab e qalb o nazar kuch na kuch to hai
chalti he thodi door har ek raahrou ke sath
ahmar ye gard e raah-guzar kuch na kuch to hai
Sunday, February 6, 2011
Ahmar kashipuri
Apne khoon me har admi tar tha.
sheher-e-gham ke ajeeb manzar tha
Jaam toota ke mera dil toota .
aaena aaena barabar tha
jaan kar tashna lab raha warna
mere age khula samandar tha
Jisko manzar samajh rahe the log
kuch nahi tha fareb e manzar tha
Kese meri giraft me ata.
wo to ek roshni ka paikar tha.
aake sehra me kiya mila ahmar.
esa mousam to khud mere ghar tha.
sheher-e-gham ke ajeeb manzar tha
Jaam toota ke mera dil toota .
aaena aaena barabar tha
jaan kar tashna lab raha warna
mere age khula samandar tha
Jisko manzar samajh rahe the log
kuch nahi tha fareb e manzar tha
Kese meri giraft me ata.
wo to ek roshni ka paikar tha.
aake sehra me kiya mila ahmar.
esa mousam to khud mere ghar tha.
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