Friday, December 31, 2010

jaan nisaar akhtar

ज़माना आज नहीं डगमगा के चलने का
सम्भल भी जा कि अभी वक़्त है सम्भलने का



बहार आये चली जाये फिर चली आये
मगर ये दर्द का मौसम नहीं बदलने का



ये ठीक है कि सितारों पे घूम आये हैं
मगर किसे है सलिक़ा ज़मीं पे चलने का



फिरे हैं रातों को आवारा हम तो देखा है
गली गली में समाँ चाँद के निकलने का



तमाम नशा-ए-हस्ती तमाम कैफ़-ए-वजूद
वो इक लम्हा तेरे जिस्म के पिघलने का

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