Saturday, December 11, 2010

Ahmad Faraz

अल्मिया[1]

किस तमन्ना [2]से ये चाहा था कि इक रोज़ तुझे
साथ अपने लिए उस शहर को जाऊँगा जिसे
मुझको छोड़े हुए,भूले हुए इक उम्र[3]हुई

हाय वो शहर कि जो मेरा वतन है फिर भी
उसकी मानूस[4]फ़ज़ाओं [5]से रहा बेग़ाना[6]
मेरा दिल मेरे ख़्यालों[7]की तरह दीवाना[8]


आज हालात का ये तंज़े-जिगरसोज़ [9]तो देख
तू मिरे शह्र के इक हुजल-ए-ज़र्रीं[10] में मकीं[11]
और मैं परदेस में जाँदाद-ए-यक-नाने-जवीं[12]



शब्दार्थ:

↑ त्रासदी
↑ कामना,दिल की गहराइयों से
↑ लंबा समय
↑ परिचित
↑ हवाओं (वातावरण)
↑ अंजान
↑ विचारों
↑ पागल
↑ सीने को छलनी कर देने वाला उलाहना
↑ सोने (स्वर्ण) की सेज
↑ निवासी
↑ जौ की एक रोटी को तरसता

No comments:

Post a Comment