Tuesday, December 28, 2010

sheen qaaf nizaam

पहले जमीन बांटी फिर घर भी बट गया
इन्सान अपने आप में कितना सिमट गया

अब क्या हुआ कि खुद को मैं पहचानता नही
मुद्दत हुई कि रिश्ते का कुहरा भी छट गया

हम मुंतजिर थे शाम से सूरज के दोस्तों
लेकिन वो आया सर पे तो कद अपना घट गया

गांवों को छोड़ कर तो चले आये शहर में
जायें किधर कि शहर से भी जी उचट गया

किससे पनाह मांगे, कहां जायें, क्या करें
फिर आफताब रात का घूंघट उलट गया

सैलाबे-नूर में जो रहा मुझ से दूर-दूर
वो शख्स फिर अंधेरे में मुझसे लिपट गया

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