Friday, December 24, 2010

Ahmad hydrabadi

दुनिया के हर इक ज़र्रे से घबराता हूँ।
ग़म सामने आता है, जिधर जाता हूँ।
रहते हुए इस जहाँ में मिल्लत गुज़री,
फिर भी अपने को अजन्बी पाता हूँ॥

दिलशाद अगर नहीं तो नाशाद सही,
लब पर नग़मा नहीं तो फ़रियाद सही।
हमसे दामन छुडा़ के जाने वाले,
जा- जा गर तू नहीं तेरी याद सही॥

गुलज़ार भी सहरा नज़र आता है मुझे,
अपना भी पराया नज़र आता है मुझे।
दरिया-ए-वजूद में है तूफ़ाने-अदम,
हर क़तरे में ख़तरा नज़र आता है मुझे॥

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