Monday, December 27, 2010

josh malihabaadi

ख़ामोशी का समाँ है और मैं हूँ
दयार-ए-ख़ुफ़्तगाँ[1] है और मैं हूँ

कभी ख़ुद को भी इंसाँ काश समझे
ये सई-ए-रायगाँ[2] है और मैं हूँ

कहूँ किस से कि इस जमहूरियत में
हुजूम-ए-ख़सरवाँ[3] है और मैं हूँ

पड़ा हूँ इस तरफ़ धूनी रमाये
अताब-ए-रहरवाँ है और मैं हूँ

कहाँ है हम-ज़बाँ अल्लाह जाने
फ़क़त मेरी ज़बाँ है और मैं हूँ

ख़ामोशी है ज़मीं से आस्माँ तक
किसी की दास्ताँ है और मैं हूँ

क़यामत है ख़ुद अपने आशियाँ में
तलाश-ए-आशियाँ है और मैं हूँ

जहाँ एक जुर्म है याद-ए-बहाराँ
वो लाफ़ानी-ख़िज़ाँ[4] है और मैं हूँ

तरसती हैं ख़रीददारों की आँखें
जवाहिर की दुकाँ है और मैं हूँ

नहीं आती अब आवाज़-ए-जरस[5] भी
ग़ुबार-ए-कारवाँ[6] है और मैं हूँ

म'अल-ए-बंदगी[7] ऐ "जोश" तौबा
ख़ुदा-ए-मेहरबाँ है और मैं हूँ

शब्दार्थ:

↑ सोये हुए लोगों का जहाँ
↑ बेकार सी कोशिश
↑ राजाओं की भीड़
↑ स्थायी पतझड़
↑ घंटियों की आवाज़
↑ कारवां के बाद उड़ती हुई धूल
↑ किसी की पूजा का फल

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