Friday, December 17, 2010

krishna bihari noor luckhnavi

इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत

इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत



रात हो दिन हो ग़फ़लत हो कि बेदारी हो

उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत



तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी

कभी दरिया नहीं काफ़ी, कभी क़तरा है बहुत



मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह

मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत



कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है

घर की दहलीज़ पे ऐ 'नूर' उजाला है बहुत

1 comment:

  1. कृष्ण कुमार नाज़February 13, 2012 at 6:25 AM

    बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल, वाह-वाह-वाह।

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